Sunday, May 16, 2010

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जवाहर लाल नेहरू
जीवन
जवाहर लाल नेहरू का जन्म इलाहाबाद में एक धनाढ्य वकील मोतीलाल नेहरू के घर हुआ था। उनकी माँ का नाम स्वरूप रानी नेहरू था। वह मोतीलाल नेहरू के इकलौते पुत्र थे। इनके अलावा मोती लाल नेहरू को तीन पुत्रियां थीं। नेहरू कश्मीरी वंश के सारस्वत ब्राह्मण थे।
जवाहरलाल नेहरू ने दुनिया के कुछ बेहतरीन स्कूलों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा हैरो से, और कॉलेज की शि़क्षा ट्रिनिटी कॉलेज, लंदन से पूरी की थी। इसके बाद उन्होंने अपनी लॉ की डिग्री कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पूरी की। इंग्लैंड में उन्होंने सात साल व्यतीत किए जिसमें वहां के फैबियन समाजवाद और आयरिश राष्ट्रवाद के लिए एक तर्कसंगत दृष्टिकोण विकसित किया।
जवाहरलाल नेहरू 1912 में भारत लौटे और वकालत शुरू की। 1916 में उनकी शादी कमला नेहरू से हुई। 1917 में जवाहर लाल नेहरू होम रूल लीग में शामिल हो गए। राजनीति में उनकी असली दीक्षा दो साल बाद 1919 में हुई जब वे महात्मा गांधी के संपर्क में आए। उस समय महात्मा गांधी ने रॉलेट अधिनियम के खिलाफ एक अभियान शुरू किया था। नेहरू, महात्मा गांधी के सक्रिय लेकिन शांतिपूर्ण, सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति खासे आकर्षित हुए। गांधी ने भी युवा जवाहरलाल नेहरू में भारत का भविष्य देखा और उन्हें आगे बढने के लिए प्रेरित किया।
नेहरू ने महात्मा गांधी के उपदेशों के अनुसार अपने परिवार को भी ढाल लिया। जवाहरलाल और मोतीलाल नेहरू ने पश्चिमी कपडों और महंगी संपत्ति का त्याग कर दिया। वे अब एक खादी कुर्ता और गाँधी टोपी पहनने लगे। जवाहर लाल नेहरू ने 1920-1922 में असहयोग आंदोलन में सक्रिय हिस्सा लिया और इस दौरान पहली बार गिरफ्तार किए गए। कुछ महीनों के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
जवाहरलाल नेहरू 1924 में इलाहाबाद नगर निगम के अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने शहर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में दो वर्ष तक सेवा की। यह उनके लिए एक मूल्यवान प्रशासनिक अनुभव था जो उन्हें तब काम आया जब वह देश के प्रधानमंत्री बने। उन्होंने अपने कार्यकाल का इस्तेमाल सार्वजनिक शिक्षा के विस्तार, स्वास्थ्य की देखभाल और स्वच्छता के लिए किया। 1926 में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से सहयोग की कमी का हवाला देकर इस्तीफा दे दिया.
1926 से 1928 तक, जवाहर लाल ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव के रूप में सेवा की। 1928-29 में, कांग्रेस के वार्षिक सत्र का आयोजन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया गया। उस सत्र में जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ने पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग का समर्थन किया, जबकि मोतीलाल नेहरू और अन्य नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ही प्रभुत्व सम्पन्न राज्य का दर्जा पाने की मांग का समर्थन किया। मुद्दे को हल करने के लिए, गांधी ने बीच का रास्ता निकाला और कहा कि ब्रिटेन को भारत के राज्य का दर्जा देने के लिए दो साल का समय दिया जाएगा और यदि ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए एक राष्ट्रीय संघर्ष शुरू करेगी। नेहरू और बोस ने मांग की कि इस समय को कम कर के एक साल कर दिया जाए। ब्रिटिश सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया।
दिसम्बर 1929 में, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में आयोजित किया गया जिसमें जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। इसी सत्र के दौरान एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें भारत की स्वतंत्रता की मांग की गई। 26 जनवरी, 1930 को लाहौर में जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया। गांधी जी ने भी 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया। आंदोलन खासा सफल रहा और इसने ब्रिटिश सरकार को प्रमुख राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया.
जब ब्रिटिश सरकार ने भारत अधिनियम 1935 प्रख्यापित किया तब कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ने का फैसला किया। नेहरू चुनाव के बाहर रहे लेकिन ज़ोरों के साथ पार्टी के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया। कांग्रेस ने लगभग हर प्रांत में सरकारों का गठन किया और केन्द्रीय असेंबली में सबसे ज्यादा सीटों पर जीत हासिल की।
नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए 1936, 1937 और 1946 में चुने गए थे, और राष्ट्रवादी आंदोलन में गांधी के बाद द्वितीय स्थान हासिल किया। उन्हें 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार भी किया गया और 1945 में छोड दिया गया। 1947 में भारत और पाकिस्तान की आजादी के समय उन्होंने अंग्रेजी सरकार के साथ हुई वार्ताओं में महत्वपूर्ण भागीदारी की।
1947 में वे स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। अंग्रेजों ने करीब 500 देशी रियासतों को एक साथ स्वतंत्र किया था और उस वक्त सबसे बडी चुनौती थी उन्हें एक झंडे के नीचे लाना। उन्होंने भारत के पुनर्गठन के रास्ते में उभरी हर चुनौती का समझदारी पूर्वक सामना किया। जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. उन्होंने योजना आयोग का गठन किया, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को प्रोत्साहित किया और तीन लगातार पंचवर्षीय योजनाओं का शुभारंभ किया। उनकी नीतियों के कारण देश में कृषि और उद्योग का एक नया युग शुरु हुआ। नेहरू ने भारत की विदेश नीति के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभाई।.
जवाहर लाल नेहरू ने जोसेफ ब्रॉज टीटो और अब्दुल गमाल नासिर के साथ मिलकर एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद के खात्मे के लिए एक निर्गुट आंदोलन की रचना की। वह कोरियाई युद्ध का अंत करने, स्वेज नहर विवाद सुलझाने, और कांगो समझौते को मूर्तरूप देने जैसे अन्य अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में मध्यस्थ की भूमिका में रहे। पश्चिम बर्लिन, ऑस्ट्रिया, और लाओस के जैसे कई अन्य विस्फोटक मुद्दों के समाधान में पर्दे के पीछे रह कर भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्हें वर्ष 1955 में भारत रत्न से सम्मनित किया गया।
लेकिन नेहरू पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के संबंधों में सुधार नहीं कर पाए। पाकिस्तान के साथ एक समझौते तक पहुँचने में कश्मीर मुद्दा और चीन के साथ मित्रता में सीमा विवाद रास्ते के पत्थर साबित हुए। नेहरू ने चीन की तरफ मित्रता का हाथ भी बढाया, लेकिन 1962 में चीन ने धोखे से आक्रमण कर दिया। नेहरू के लिए यह एक बड़ा झटका था और शायद उनकी मौत भी इसी कारण हुई। 27 मई, 1964 को जवाहरलाल नेहरू को दिल का दौरा पडा जिसमें उनकी मृत्यु हो गई.



राहुल गांधी
राहुल गांधी (हिन्दी: राहुल गांधी) (19 जून 1970 में पैदा हुए) एक भारतीय नेता और [[भारत की संसदभारत की संसद के सदस्य]] हैं, जो अमेठी चुनाव क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं.[१]उनकी राजनीतिक पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है.[२]वह नेहरू-गांधी परिवार से हैं, जो भारत का सबसे प्रमुख राजनीतिक परिवार है.उन्हें व्यापक रूप से 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस की बड़ी जीत का श्रेय दिया गया है. उनकी रणनीतियां अत्यंत प्रभावशाली हैं: जमीनी स्तर पर सक्रियता पर बल देना, ग्रामीण भारत के साथ गहरे संबंध स्थापित करना और स्वयं पदानुक्रमित कांग्रेस पार्टी का प्रजातंत्रीकरण करने की कोशिश करना. [३]उन्होंने मनमोहन सिंह की सरकार में मन्त्रीपद से इंकार कर दिया है और पार्टी को जड़ से मजबूत बनाने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं.प्रारंभिक जीवन
राहुल गांधी का जन्म भारत के पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी और इटली में जन्मी तथा मौजूदा कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के पुत्र के रूप में नई दिल्ली में हुआ था.प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उनकी दादी थीं.उनके परदादा, जवाहरलाल नेहरू, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे, और उसके पर-परदादा मोतीलाल नेहरू भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रतिष्ठित नेता थे[४].
सुरक्षा कारणों से गृह-शिक्षा आरंभ होने से पहले और दून स्कूल में, जो उनके पिता की भी "मातृ संस्था" थी,[12] दाखिला लेने से पहले, उन्होनें नई दिल्ली के मॉडर्न स्कूल[10] में 1981 से 1983 तक शिक्षा ग्रहण की थी[५]विश्वविद्यालय की शुरुआत हार्वर्ड से की और अंततः 1994 में रोलिंस कॉलेज, फ्लोरिडा से अपनी बी.ए. की उपाधि प्राप्त की[६].उन्होंने 1995 में ट्रिनिटी कॉलेज, केम्ब्रिज से, विकास अध्ययन में एम.फिल. प्राप्त किया.शुरूआती व्यवसाय
स्नातक के बाद, राहुल गांधी ने प्रबंधन गुरु माइकल पोर्टर के साथ प्रबंधन परामर्श फर्म, मॉनिटर ग्रुप, में तीन साल तक काम किया[17].उस व्यवसाय में उनके सहयोगियों को पता नहीं था कि वे किसके साथ काम कर रहे थे-क्योंकि वह एक कल्पित नाम का इस्तेमाल कर रहे थे.एक वरिष्ठ साथी के शब्दों में, कंपनी के भीतर उनकी प्रतिष्ठा बहुत प्रभावशाली थी.वह 2002 के आखिर में मुंबई की एक इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी आउटसोर्सिंग फर्म को चलाने के लिए भारत लौटे[18]. राजनीतिक व्यवसाय
2003 में, राहुल गांधी के राष्ट्रीय राजनीति में आसन्न प्रविष्टि के बारे में बड़े पैमाने पर मीडिया की अटकलबाजी थी, जिसकी उन्होंने पुष्टि नहीं की.[20]वह सार्वजनिक समारोहों और कांग्रेस की बैठकों में अपनी माँ के साथ दिखाई दिए . [७][७]एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट श्रृंखला देखने के लिए एक सद्भावना यात्रा पर अपनी बहन प्रियंका गांधी के साथ पाकिस्तान भी गए.[८]
जनवरी 2004 में राजनीति उनके और उनकी बहन के संभावित प्रवेश के बारे में अटकलें बढ़ीं जब उन्होंने अपने पिता के पूर्व निर्वाचन क्षेत्र अमेठी का दौरा किया, जो उस समय उनकी माँ के नेतृत्व में था.उन्होंने एक निश्चित प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया था, यह कहकर की "मैं राजनीति के विरुद्ध नहीं हूँ. मैंने यह तय नहीं किया है की मैं राजनीति में कब प्रवेश करूँगा और वास्तव में, करूँगा भी कि नहीं."[९] मार्च 2004 में, मई 2004 का चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ उन्होंने राजनीति में अपने प्रवेश की घोषणा की, जिसमें वे अपने पिता के पूर्व निर्वाचन क्षेत्र उत्तर प्रदेश के अमेठी से लोकसभा के लिए खड़े हुए, जो भारत की संसद का निचला सदन है.[१०] इससे पहले, उनके चाचा संजय ने, एक विमान दुर्घटना से पहले, इस कुर्सी का नेतृत्व किया.यह कुर्सी उनकी माँ के नेतृत्व में थी जब तक वह पड़ोसी कुर्सी राए बरेली में स्थानान्तरित नहीं हुई थी.उस समय राज्य की 80 /10 लोकसभा सीटों को जीतकर, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का बुरा हाल था.[९] उस समय, इस कदम ने राजनीतिक टीकाकारों में आश्चर्य उत्पन्न किया, जिन्होंने उनकी बहन प्रियंका में अधिक करिश्माई और सफल होने की संभावना देखी.पार्टी के अधिकारियों के पास मीडिया के लिए CV तैयार नहीं था, उनका कदम इतना आश्चर्य जनक था.इसने अटकलें उत्पन्न की कि भारत के सबसे मशहूर राजनीतिक परिवार के एक युवा सदस्य की उपस्थिति भारत की युवा आबादी के बीच में कांग्रेस पार्टी के राजनीतिक भाग्य को पुनर्जीवित करेगी[११] विदेशी मीडिया के साथ अपने पहले इंटरव्यू में, उन्होंने देश को जोड़ने वाले शख्सियत के रूप में स्वयं को पेश किया और भारत की "विभाजनकारी" राजनीति की निंदा की, यह कहकर कि वह जाति और धार्मिक तनाव को कम करने की कोशिश करेंगे.[१०]उनकी उम्मीदवारी को स्थानीयों ने उत्साह के साथ स्वागत किया, जिनका इस क्षेत्र में इस परिवार की उपस्थिति के साथ एक लंबा संबंध था.[९] , भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता]] वह एक विशाल बहुमत से जीते, 1,00,000 की एक मार्जिन के साथ परिवार का गढ़ बनाए रखा, जब कांग्रेस ने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित रूप से हराया.[१२]उनका अभियान उनकी छोटी बहन, प्रियंका गांधी वाद्रा द्वारा संचालित किया गया था.[तथ्य वांछित] 2006 तक उन्होंने कोई अन्य पद ग्रहण नहीं किया और मुख्य निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दों और उत्तर प्रदेश की राजनीति पर ध्यान केंद्रित किया, और भारतीय और अंतरराष्ट्रीय प्रेस में व्यापक रूप से अटकलें थी की सोनिया गांधी भविष्य में उन्हें एक राष्ट्रीय स्तर का कांग्रेस नेता बनाने के लिए तैयार कर रही हैं. [१३]
जनवरी 2006 में, हैदराबाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक सम्मेलन में, पार्टी के हजारों सदस्यों ने गांधी को पार्टी में एक और महत्वपूर्ण नेतृत्व की भूमिका के लिए प्रोत्साहित किया और प्रतिनिधियों के संबोधन की मांग की.उन्होंने कहा, मैं इसकी सराहना करता हूँ और मैं आपकी भावनाओं और समर्थन के लिए आभारी हूँ.मैं आपको विश्वास दिलाता की मैं आपको निराश नहीं करूँगा", लेकिन धैर्य रखने को कहा और तुरंत एक उच्च स्तर भूमिका निभाने से मना कर दिया.[१४] गांधी और उनकी बहन ने 2006 में राय बरेली में पुनः सत्तारूढ़ होने के लिए उनकी माँ के अभियान को प्रबंधित किया, जो की आसानी से 400000 मतों से अधिक मार्जिन के साथ जीती थीं.[१५]
2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए एक उच्च स्तर के कांग्रेस अभियान में वह एक प्रमुख व्यक्ति थे; कांग्रेस ने, हलाँकि, 8.53% मतदान के साथ केवल 22 सीटें जीती.इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को, जो पिछड़ी जाति के भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती है, अपने ही अधिकार में उत्तर प्रदेश में 16 साल शासन करती हुई पहली पार्टी देखी.[१६]. राहुल गांधी को 24 सितंबर 2007 में पार्टी सचिवालय के एक फेरबदल में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का महासचिव नियुक्त किया गया था.[१७]उसी फेरबदल में, उन्हें युवा कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ का निरिक्षण दिया गया था.[१८]एक युवा नेता के रूप में खुद को साबित करने के उनके प्रयास में नवम्बर 2008 में उन्होंने नई दिल्ली में अपने 12, तुघ्लक लेन निवास में कम से कम 40 लोगों को सूक्षमता से चुनने के लिए साक्षात्कार आयोजित किया, जो की भारतीय युवा कांग्रेस (IYC) की सोच-टैंक बनेंगे, जबसे वह सितम्बर 2007 में महासचिव नियुक्त हुए हैं तबसे इस संगठन को परिणत करने के इच्छुक हैं.[१९]


स्वामी विवेकानन्द
स्वामी विवेकानन्द (१२ जनवरी १८६३- ४ जुलाई १९०२) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो नगर में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासम्मेलन में सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का वेदान्त अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानंद की वक्तृता के कारण ही पँहुचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। रामकृष्ण जी बचपन से ही एक पहुँचे हुए सिद्ध पुरुष थे। स्वामीजी ने कहा था की जो व्यक्ति पवित्र रुप से जीवन निर्वाह करता है उसके लिए अच्छी एकग्रता हासिल करना सम्भव है!जीवन वृत्त
विवेकानंदजी का जन्म १२ जनवरी सन्‌ १८६३ को हुआ। उनका घर का नाम नरेंद्र दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेंद्र को भी अंगरेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गए किंतु वहाँ उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ। सन्‌ १८८४ में श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेंद्र पर पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। कुशल यही थी कि नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था। अत्यंत गरीबी में भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रातभर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।गुरु भेंट
रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंसजी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंसजी की कृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ फलस्वरूप नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ।
स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाह किए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु सेवा में सतत हाजिर रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था। कैंसर के कारण गले में से थूंक, रक्त, कफ आदि निकलता था। इन सबकी सफाई वे खूब ध्यान से करते. निष्ठा एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और लापरवाही दिखाई तथा घृणा से नाक भौंहें सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को गुस्सा आ गया। उस गुरुभाई को पाठ पढ़ाते हुए और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा।यात्राएं
25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की।सन्‌ 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानंदजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुँचे। योरप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए। फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। उनकी वक्ततृत्व शैली तथा ज्ञान को देखते हुये वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। [२] अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा' यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। 4 जुलाई सन्‌ 1902 को उन्होंने देह त्याग किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।


बाल गंगाधर तिलक (२३ जुलाई, १५८६ - १ अगस्त १९२०) भारत के एक प्रमुख नेता, समाज सुधारक और स्वतन्त्रता सेनानी थे। ये भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता थे। इन्होंने सबसे पहले भारत में पूर्ण स्वराज की माँग उठाई। इनका कथन "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा" बहुत प्रसिद्ध हुआ। इन्हें आदर से "लोकमान्य" (पूरे संसार में सम्मानित) कहा जाता था। इन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद का पिता भी कहा जाता है। प्रारम्भिक जीवन -तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के एक गाँव में हुआ था। ये आधुनिक कालेज शिक्षा पाने वाली पहली भारतीय पीढ़ी में थे। इन्होंने कुछ समय तक स्कूल और कालेजों में गणित पढ़ाया। अंग्रेजी शिक्षा के ये घोर आलोचक थे और मानते थे कि यह भारतीय सभ्यता के प्रति अनादर सिखाती है। इन्होंने दक्खन शिक्षा सोसायटी की स्थापना की ताकि भारत में शिक्षा का स्तर सुधरे।तिलक ने मराठी में केसरी नामक दैनिक समाचार पत्र शुरु किया जो जल्दी ही जनता में बहुत लोकप्रिय हो गया। तिलक ने अंग्रेजी सरकार की क्रूरता और भारतीय संस्कृति के प्रति हीन भावना की बहुत आलोचना की। इन्होंने माँग की कि ब्रिटिश सरकार तुरन्त भारतीयों को पूर्ण स्वराज दे। केसरी में छपने वाले उनके लेखों की वजह से उन्हें कई बार जेल भेजा गया। तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए लेकिन जल्दी ही वे कांग्रेस के नरमपंथी रवैये के विरुद्ध बोलने लगे। 1907 में कांग्रेस गरम दल और नरम दल में विभाजित हो गई। गरम दल में तिलक के साथ लाला लाजपत राय और बिपिन चन्द्र पाल शामिल थे। इन तीनों को लाल-बाल-पाल के नाम से जाना जाने लगा। 1908 में तिलक ने क्रांतिकारी प्रफुल्ल चकी और खुदीराम बोस के बम हमले का समर्थन किया जिसकी वजह से उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) में जेल भेज दिया गया। जेल से छूटकर वे फिर कांग्रेस में शामिल हो गए और 1916-18 में ऐनी बीसेंट और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ अखिल भारतीय होम रुल लीग की स्थापना की। समाज सुधार -तिलक ने भारतीय समाज में कई सुधार लाने के प्रयत्न किए। वे बाल-विवाह के विरुद्ध थे। उन्होंने हिन्दी को सम्पूर्ण भारत की भाषा बनाने पर ज़ोर दिया। महाराष्ट्र में उन्होंने सार्वजनिक गणेशोत्सव की परम्परा प्रारम्भ की ताकि लोगों तक स्वराज का सन्देश पहुँचाने के लिए एक मंच उपलब्ध हो। भारतीय संस्कृति, परम्परा और इतिहास पर लिखे उनके लेखों से भारत के लोगों में स्वाभिमान की भावना जागृत हुई। उनके निधन पर लगभग 2 लाख लोगों ने उनके दाह-संस्कार में हिस्सा लिया।




लालूप्रसाद यादव भारत के बिहार प्रांत के राजनीतिज्ञ है। वे भारत के वर्तमान मंत्रिमण्डल मे केन्द्रीय रेल मंत्री रहे हैं। वे बिहार के मुख्यमंत्री थे।अनुक्रम [छुपाएँ]१ जीवन और राजनीति सफर२ लालू जी का इतिहास३ शौक४ लालू का अन्दाज५ साक्षात्कार[संपादित करें] जीवन और राजनीति सफरबिहार के गोपालगंज मे आजादी के एक साल बाद 1948 मे एक गरीब परिवार मे जन्मे लालू ने राजनीति की शुरूवात जयप्रकाश आन्दोलन से की, तब वे एक छात्र नेता थे। उन्होने वकालत भी की हुई है। 1977 मे इमरजेंसी के बाद हुए लोकसभा चुनाव मे लालू जीते और पहली बार लोकसभा पहुँचे, तब उनकी उम्र 29 साल थी। 1980 से 1989 तक वे दो बार विधानसभा के सदस्य रहे और विपक्ष के नेता पद पर भी रहे। 1990 मे वे बिहार के मुख्यमंत्री बने। 1995 मे भी वे भारी बहुमत से विजयी रहे। 1997 मे जब सीबीआई ने उनके खिलाफ चारा घोटाला मे आरोप पत्र दाखिल किया तो उन्हे मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता सौंपकर वे राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष बने रहे, और अपरोक्ष रूप से सत्ता की कमान भी उनके हाथ ही रही चारा मामले मे लालू को जेल भी जाना पड़ा, और उनको कई महीने तक जेल मे भी रहना पड़ा 2004 लोकसभा चुनाव मे एनडीए की करारी हार के बाद लालू रेलमन्त्री बनेरेल मंत्रालय संभालने के बाद तो लालू ने जैसे इस पर जादू की छड़ी घुमा दी। दशकों से घाटे में चला आ रहा रेल मंत्रालय अचानक अरबों रुपए के मुनाफे में आ गया। लालू यादव के इस कुशल प्रबंधन की चर्चा भारत ही नहीं पूरे विश्व में होती है। भारत के सभी प्रमुख प्रबंधन संस्थानों के साथ-साथ दुनिया भर के बिजनेस स्कूलों में लालू यादव के कुशल प्रबंधन से हुआ भारतीय रेलवे का कायाकल्प एक शोध का विषय बन गया है। हालांकि खुद लालू यादव के पास भी इस सवाल का जवाब नहीं है कि वह अपने इस हुनर का इस्तेमाल अपने गृह राज्य बिहार पर अपने लंबे शासनकाल के दौरान क्यों नहीं कर पाए?[संपादित करें] लालू जी का इतिहासबिहार के गोपालगंज में आजादी के एक साल बाद 1948 में एक निहायत ही गरीब परिवार में जन्मे लालू ने राजनीति की शुरूवात जयप्रकाश आन्दोलन से की, तब वे एक छात्र नेता थे, और बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि लालू ने वकालत भी की हुई है। 1977 में आपातकाल(इमरजेंसी) के बाद हुए लोकसभा चुनाव में लालू जीते और पहली बार लोकसभा पहुँचे, तब उनकी उम्र मात्र 29 साल थी। 1980 से 1989 तक वे दो बार विधानसभा के सदस्य रहे और विपक्ष के नेता पद पर भी रहे। लेकिन सबसे सही समय उनके जीवन मे आया 1990 में जब वह बाकी धुरंधर और घाघ नेताओं को छकाते और ठेंगा दिखाते हुए बिहार के मुख्यमंत्री बने। यह अत्यन्त अप्रत्याशित था तो असंतोष स्वाभाविक ही था, अनेक आंतरिक विरोधों के बावजूद वे अगले चुनाव यानि कि 1995 मे भी भारी बहुमत से विजयी रहे और अपने आपको सही साबित किया। लालू यादव के विरोधी किसी मोके का सिर्फ इंतजार ही कर सकते थे। लालू जी के जनाधार मे MY यानि मुस्लिम और यादवो के फैक्टर का बङा योगदान है, लालू जी ने इससे कभी इन्कार भी नहीं किया, और लगातार अपने जनाधार को बढाते रहे।लेकिन जैसा कि हर राजनेता के जीवन मे कुछ कठिन पल आते है, सो 1997 में जब सीबीआई ने उनके खिलाफ चारा घोटाले में आरोप पत्र दाखिल किया तो उन्हे मुख्यमंत्री पद से हटना पङा, लेकिन अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता सौंपकर वे राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष बने रहे, जिससे अपरोक्ष रूप से सत्ता की कमान भी उनके हाथ ही रही। लेकिन रबरी देवी ने भी लोक सभा में बहुमत साबित किया और बिहार की मुख्या मंत्री रही। चारा मामले मे लालू जी को जेल भी जाना पङा,लेकिन लालू यादव के पास साशन की आची क्षमता रखने वाले हैं। फिर पिछले लोकसभा चुनाव में एनडीए की करारी हार के बाद के बाद लालू प्रसाद ने दिल्ली की सत्ता की तरफ रुख किये,वे तो गृह मन्त्री बनना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस सरकार में रेलमन्त्री बनने को राजी हो गये। श्री यादव के समय रेल की सेवा अच्छी रही और घाटे में चल रही रेल सेवा फिर से फायदे में आई। कई नए रेल सुरु हुए जिससे यात्री संतुस्ट रहे।[संपादित करें] शौकलालू प्रसाद ने काफी लेख भी लिखे है मुख्यतः राजनीतिक और आर्थिक विषयों पर , उनका शौंक है बड़े बड़े आन्दोलनकारियों की जीवनिया पढना और राजनीतिक चर्चा करना…. संगीत के नाम पर लोकगीत इन्हे बहुत पसन्द है, और खेलो मे क्रिकेट मे दिलचस्पी है, वे बिहार क्रिकेट एसोसियेशन के अध्यक्ष भी है. और उनका सपुत्र एक अच्छा क्रिकेटर भी है.लालू ने एक फिल्म मे भी काम किया जिसका नाम उनके नाम पर ही है, यह बात दीगर है कि इस फिल्म का उनसे कुछ भी लेना देना नही है. रेलवे मन्त्री रहते हुए भी लालू प्रसाद विवादास्पद रहे…..रेलवे मे कुल्हड़ चलाने का मामला हो या विलेज ओन व्हील गाड़िया, लालू का इन सबके पीछे अपना तर्क है, सिवाय सोनिया गांधी के वे यूपीए मे किसी भी नेता को घास नही डालते, हमेशा अपनी मनमर्जी करते है.लालू प्रसाद के रिश्तेदार भी इनके राजनीतिक सफर मे काफी रूकावटे खड़ी करते है, साले साहब साधू यादव,सुभाष यादव भी हमेशा किसी ना किसी तरह लालू के लिये आफते लाते रहे है.वैसे भी लालू हमेशा नये नये विवादो मे घेरने के लिए विरोधी प्रबल रहे हैं अभी पिछले दिनो वे बिहार मे गरीबो मे पैसे बाँटते हुए देखे गये थे..जो चुनाव आचार संहिता का सीधा सीधा उल्लंघन है….. जिसका विरोधियो ने पुरजोर विरोध किया था,[संपादित करें] लालू का अन्दाजअपनी बात कहने का लालू का खास अन्दाज है, यही अन्दाज लालू को बाकी राजनेताओ से अलग करता है, लालू का अन्दाज ही कुछ निराला है.पत्रकार तो इनके आगे पीछे मन्डराते रहते है, और बस इन्तजार करते है कि कब लालू कुछ बोलें और ये लोग छापे…..सीधा साधा मामला है, लोग लालू के बारे मे पढना पसन्द करते है. बिहार की सड़को को हेमा मालिनी के गालों की तरह बनाने का वादा हो या रेलवे मे कुल्हड़ की शुरुवात, लालू हमेशा से ही सुर्खियों मे रहे.इन्टरनेट मे आप लालू के लतीफों का अलग ही सेक्शन पायेंगे…. लालू के आलोचक चाहे कुछ भी कहें मेरी नजर मे लालू एक आक्रामक और हाजिरजवाब राजनेता है,जिनका एक अच्छा खासा जनाधार है.लालू का एक ही सपना है, भारत का प्रधानमन्त्री बनना, अब देंखे इनका यह सपना कब पूरा होता है.




सुषमा स्वराज (जन्म : १४ फरवरी १९५२) भारत की भारतीय जनता पार्टी द्वारा संसद में विपक्ष की नेता चुनी गई हैं। सम्प्रति वे भारत की पन्द्रहवीं लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेत्री हैं। इसके पहले वे केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में रह चुकी हैं तथा दिल्ली की मुख्यमंत्री भी रही हैं। वे सन २००९ के लोकसभा चुनावों के लिये भाजपा के १९ सदस्यीय चुनाव-प्रचार-समिति की अध्यक्ष भी रहीं थी। अम्बाला छावनी में में जन्मी सुषमा स्वराज ने एस.डी. कालेज अंबाला छावनी से बीए की डिग्री ली। पढ़ाई समाप्त होने के बाद जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में साथ लगने वाली सुषमा ने राजनीति के मैदान में पूरी तरह से कूद जाने का फैसला कर लिया और आपातकाल का पुरजोर विरोध किया। वे सक्रिय राजनीति से जुड़ीं और सुख-दुख सभी तरह के मोड़ देखे।[संपादित करें] राजनीतिक करियरआपातकाल के बाद उन्होंने दो बार हरियाणा विधानसभा का चुनाव जीता और चौधरी देवी लाल की सरकार में से १९७७ से ७९ के बीच राज्य की श्रम मंत्री रह कर २५ साल की उम्र में कैबिनेट मंत्री बनने का रिकार्ड बनाया था।[१] १९७० में उन्हें एस.डी. कालेज में सर्वश्रेष्ठ छात्रा के सम्मान से सम्मानित किया गया था। वे तीन साल तक लगातार एस.डी. कालेज छावनी की एनसीसी की सर्वश्रेष्ठ कैडेट और तीन साल तक राज्य की श्रेष्ठ वक्ता भी चुनी गईं। पंजाब विश्वविद्यालय द्वारा १९७३ में उन्हें सर्वोच्च वक्ता का सम्मान भी मिला। भाजपा में राष्ट्रीय मंत्री बनने वाली पहली महिला सुषमा के नाम पर कईं रिकार्ड बने हैं। १३ जुलाई, १९७५ को स्वराज कौशल के साथ उनका विवाह हुआ था।[२] वे भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता बनने वाली पहली महिला हैं, वे केबिनेट मंत्री बनने वाली भी भाजपा की पहली महिला हैं, वे दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं और भारत की संसद में सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार पाने वाली पहली महिला भी वे ही हैं। [३][संपादित करें] वर्तमानवर्तमान में वे मध्य प्रदेश की विदिशा सीट से लोकसभा की सदस्या चुनी गई हैं। वे विदेशी मामलों में संसदीय स्थायी समिति की अध्यक्षा भी हैं। १९५७ में उनका विवाह स्वराज कौशल के साथ में हुआ था। जो छह साल तक राज्यसभा में सांसद रहे साथ ही मिजोरम में राज्यपाल भी रहे। स्वराज कौशल अभी तक सबसे कम आयु में राज्यपाल का पद प्राप्त करने वाले व्यक्ति हैं। सुषमा स्वराज और उनके पति की उपलब्धियों के ये रिकार्ड लिमका बुक आफ व‌र्ल्ड रिकार्ड में दर्ज करते हुए उन्हें विशेष दंपत्ति का स्थान दिया गया है। स्वराज दंपत्ति की एक पुत्री है, जो वकालत कर रही हैं। हरियाणा सरकार में श्रम व रोजगार मंत्री रहने वाली सुषमा छावनी से विधायक बनने के बाद में लगातार आगे ही बढ़ती गईं और बाद में दिल्ली पहुँचकर उन्होंने दिल्ली की राजनीति में ही सक्रिय रहने का संकल्प लिया था।



हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
आधुनिक युग के मौलिक निबंधकार और उत्कृष्ट समालोचक आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म १९ अगस्त १९०७ में बलिया जिले के दुबे-का-छपरा नामक ग्राम में हुआ था। उनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिध्द था। उनके पिता पं. अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गांव के स्कूल में ही हुई और वहीं से उन्होंने मिडिल की परीक्षा पास की। इसके पश्चात उन्होंने इंटर की परीक्षा और ज्योतिष विषय लेकर आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की। शिक्षा प्राप्ति के पश्चात द्विवेदी जी शांति निकेतन चले गए और कई वर्षों तक वहां हिंदी विभाग में कार्य करते रहे। शांति-निकेतन में रवींद्रनाथ ठाकुर तथा आचार्य क्षिति मोहन सेन के प्रभाव से साहित्य का गहन अध्ययन और उसकी रचना प्रारंभ की। द्विवेदी जी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली और उनका स्वभाव बड़ा सरल और उदार था। वे हिंदी अंग्रेज़ी, संस्कृत और बंगला भाषाओं के विद्वान थे। भक्तिकालीन साहित्य का उन्हें अच्छा ज्ञान था। लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की उपाधि देकर उनका विशेष सम्मान किया था।[संपादित करें] वर्ण्य विषयद्विवेदी जी के निबंधों के विषय भारतीय संस्कृति, इतिहास, ज्योतिष, साहित्य विविध धर्मों और संप्रदायों का विवेचन आदि है। वर्गीकरण की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबंध दो भागों में विभाजित किए जा सकते हैं - विचारात्मक और आलोचनात्मक।विचारात्मक निबंधों की दो श्रेणियां हैं। प्रथम श्रेणी के निबंधों में दार्शनिक तत्वों की प्रधानता रहती है। द्वितीय श्रेणी के निबंध सामाजिक जीवन संबंधी होते हैं। आलोचनात्मक निबंध भी दो श्रेणियों में बांटें जा सकते हैं। प्रथम श्रेणी में ऐसे निबंध हैं जिनमें साहित्य के विभिन्न अंगों का शास्त्रीय दृष्टि से विवेचन किया गया है और द्वितीय श्रेणी में वे निबंध आते हैं जिनमें साहित्यकारों की कृतियों पर आलोचनात्मक दृष्टि से विचार हुआ है। द्विवेदी जी के इन निबंधों में विचारों की गहनता, निरीक्षण की नवीनता और विश्लेषण की सूक्ष्मता रहती है।[संपादित करें] भाषाद्विवेदी जी की भाषा शुध्द साहित्यिक खड़ी बोली है। उन्होंने भाव और विषय के अनुसार ही भाषा का प्रयोग किया है। उनकी भाषा के दो रूप दिखलाई पड़ते हैं - (1) सरल साहित्यिक भाषा, (2) संस्कृत गर्भित क्लिष्ट भाषा। प्रथम रूप द्विवेदी जी के सामान्य निबंधों में मिलता है। इस प्रकार की भाषा में उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्दों का भी समावेश हुआ है। सर्वत्र ही स्वाभाविक और प्रवाहमयता मिलती है।द्विवेदी जी की भाषा का दूसरा रूप उनकी आलोचनात्मक रचनाओं में मिलता है। इनमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है। यह भाषा अधिक संयत और प्रांजल है। इस भाषा में भी कहीं कृत्रिमता या चमत्कार प्रदर्शन नहीं है और वह स्वाभाविक और प्रवाहपूर्ण है।[संपादित करें] शैलीफोटो में बाएँ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, दायें महापंडित राहुल सांकृत्यायन।द्विवेदी जी की रचनाओं में उनकी शैली के निम्नलिखित रूप मिलते हैं -(1) गवेषणात्मक शैली द्विवेदी जी के विचारात्मक तथा आलोचनात्मक निबंध इस शैली में लिखे गए हैं। यह शैली द्विवेदी जी की प्रतिनिधि शैली है। इस शैली की भाषा संस्कृत प्रधान और अधिक प्रांजल है। वाक्य कुछ बड़े-बड़े हैं। इस शैली का एक उदाहरण देखिए - लोक और शास्त्र का समन्वय, ग्राहस्थ और वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृति का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, कथा और तत्व ज्ञान का समन्वय, ब्राह्मण और चांडाल का समन्वय, पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय, राम चरित मानस शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है।(2) वर्णनात्मक शैली द्विवेदी जी की वर्णनात्मक शैली अत्यंत स्वाभाविक एवं रोचक है। इस शैली में हिंदी के शब्दों की प्रधानता है, साथ ही संस्कृत के तत्सम और उर्दू के प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। वाक्य अपेक्षाकृत बड़े हैं।(3) व्यंग्यात्मक शैली द्विवेदी जी के निबंधों में व्यंग्यात्मक शैली का बहुत ही सफल और सुंदर प्रयोग हुआ है। इस शैली में भाषा चलती हुई तथा उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का प्रयोग मिलता है।(4) व्यास शैली द्विवेदी जी ने जहां अपने विषय को विस्तारपूर्वक समझाया है, वहां उन्होंने व्यास शैली को अपनाया है। इस शैली के अंतर्गत वे विषय का प्रतिपादन व्याख्यात्मक ढंग से करते हैं और अंत में उसका सार दे देते हैं।[संपादित करें] रचनाएंद्विवेदी जी की रचनाएं दो प्रकार की हैं, मौलिक और अनूदित। उनकी मौलिक रचनाओं में सूर साहित्य हिंदी साहित्य की भूमिका, कबीर, विचार और वितर्क अशोक के फूल, वाण भट्ट की आत्म-कथा आदि मुख्य हैं। प्रबंध चिंतामणी, पुरातन प्रबंध-संग्रह, विश्व परिचय, लाल कनेर आदि द्विवेदी जी की अनूदित रचनाएं हैं। इनके अतिरिक्त द्विवेदी जी ने अनेक स्वतंत्र निबंधों की रचना की है जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं।[संपादित करें] महत्वपूर्ण कार्यद्विवेदी जी का हिंदी निबंध और आलोचनात्मक क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। वे उच्च कोटि के निबंधकार और सफल आलोचक हैं। उन्होंने सूर, कबीर, तुलसी आदि पर जो विद्वत्तापूर्ण आलोचनाएं लिखी हैं, वे हिंदी में पहले नहीं लिखी गईं। उनका निबंध-साहित्य हिंदी की स्थाई निधि है। उनकी समस्त कृतियों पर उनके गहन विचारों और मौलिक चिंतन की छाप है। विश्व-भारती आदि के द्वारा द्विवेदी जी ने संपादन के क्षेत्र में पर्याप्त सफलता प्राप्त की है।[संपादित करें] सम्मानहजारी प्रसाद द्विवेदी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९५७ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।




राजा राममोहन राय (बांग्ला: রাজা রামমোহন রায়) (२२ मई १७७२ - २७ सितंबर १८३३) को भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत और आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है। भारतीय सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है। वे ब्रह्म समाज के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह थे। उन्होंने भारत में स्वतंत्रता आंदोलन और पत्रकारिता के कुशल संयोग से दोनों क्षेत्रों को गति प्रदान की। उनके आन्दोलनों ने जहाँ पत्रकारिता को चमक दी, वहीं उनकी पत्रकारिता ने आन्दोलनों को सही दिशा दिखाने का कार्य किया।राजा राममोहन राय की दूर‍दर्शिता और वैचारिकता के सैकड़ों उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं। हिन्दी के प्रति उनका अगाध स्नेह था। वे रू‍ढ़िवाद और कुरीतियों के विरोधी थे लेकिन संस्कार, परंपरा और राष्ट्र गौरव उनके दिल के करीब थे। वे स्वतंत्रता चाहते थे लेकिन चाहते थे कि इस देश के नागरिक उसकी कीमत पहचानें।== जीवनी == राममोहन राय का जन्म बंगाल में 1772 में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था । इनके पिता एक वैष्णव थे जबकि माता शाक्त । १५ वर्ष की आयु तक उन्हें बंगाली, संस्कृत, अरबी तथा फ़ारसी का ज्ञान हो गया था । किशोरावस्था में उन्होने काफी भ्रमण किया । उन्होने 1803-1814 तक ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए भी काम किया । उन्होने ब्रह्म समाज की स्थापना की तथा विदेश (इंग्लैण्ड तथा फ़्रांस) भ्रमण भी किया ।[संपादित करें] कुरीतियों के विरुद्ध संघर्षराममोहन राय ने ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी छोड़कर अपने आपको राष्ट्र सेवा में झोंक दिया। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के अलावा वे दोहरी लड़ाई लड़ रहे थे। दूसरी लड़ाई उनकी अपने ही देश के नागरिकों से थी। जो अंधविश्वास और कुरीतियों में जकड़े थे। राजा राममोहन राय ने उन्हें झकझोरने का काम किया। बाल-विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा आदि का उन्होंने भरपूर विरोध किया।[संपादित करें] पत्रकारिताराजा राममोहन राय ने 'ब्रह्ममैनिकल मैग्ज़ीन' , 'संवाद कौमुदी' , मिरात-उल-अखबार, बंगदूत जैसे स्तरीय पत्रों का संपादन-प्रकाशन किया। बंगदूत एक अनोखा पत्र था। इसमें बांग्ला, हिन्दी और फारसी भाषा का प्रयोग एक साथ किया जाता था। उनके जुझारू और सशक्त व्यक्तित्व का इस बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि सन् 1821 में अँग्रेज जज द्वारा एक भारतीय प्रतापनारायण दास को कोड़े लगाने की सजा दी गई। फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। इस बर्बरता के खिलाफ राय ने एक लेख लिखा।




माखनलाल चतुर्वेदी (४ अप्रैल १८८९-३० जनवरी १९६८) भारत के ख्यातिप्राप्त कवि, लेखक और पत्रकार थे जिनकी रचनाएँ अत्यंत लोकप्रिय हुईं। सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के वे अनूठे हिंदी रचनाकार थे। प्रभा और कर्मवीर जैसे प्रतिष्ठत पत्रों के संपादक के रूप में उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जोरदार प्रचार किया और नई पीढी का आह्वान किया कि वह गुलामी की जंज़ीरों को तोड़ कर बाहर आए। इसके लिये उन्हें अनेक बार ब्रिटिश साम्राज्य का कोपभाजन बनना पड़ा।[१] वे सच्चे देशप्रमी थे और १९२१-२२ के असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए जेल भी गए। आपकी कविताओं में देशप्रेम के साथ साथ प्रकृति और प्रेम का भी सुंदर चित्रण हुआ है।[संपादित करें] जीवनीश्री माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में बाबई[२] नामक स्थान पर हुआ था।[संपादित करें] कार्यक्षेत्रमाखनलाल चतुर्वेदी का तत्कालीन राष्ट्रीय परिदृश्य और घटनाचक्र ऐसा था जब लोकमान्य तिलक का उद्घोष- 'स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' बलिपंथियों का प्रेरणास्रोत बन चुका था। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के अमोघ अस्त्र का सफल प्रयोग कर कर्मवीर मोहनदास करमचंद गाँधी का राष्ट्रीय परिदृश्य के केंद्र में आगमन हो चुका था। आर्थिक स्वतंत्रता के लिए स्वदेशी का मार्ग चुना गया था, सामाजिक सुधार के अभियान गतिशील थे और राजनीतिक चेतना स्वतंत्रता की चाह के रूप में सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई थी। ऐसे समय में माधवराव सप्रे के 'हिन्दी केसरी' ने सन १९०८ में 'राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार' विषय पर निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया। खंडवा के युवा अध्यापक माखनलाल चतुर्वेदी का निबंध प्रथम चुना गया। अप्रैल १९१३ में खंडवा के हिन्दी सेवी कालूराम गंगराड़े ने मासिक पत्रिका 'प्रभा' का प्रकाशन आरंभ किया, जिसके संपादन का दायित्व माखनलालजी को सौंपा गया। सितंबर १९१३ में उन्होंने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह पत्रकारिता, साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन के लिए समर्पित हो गए। इसी वर्ष कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी ने 'प्रताप' का संपादन-प्रकाशन आरंभ किया। १९१६ के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के दौरान माखनलालजी ने विद्यार्थीजी के साथ मैथिलीशरण गुप्त और महात्मा गाँधी से मुलाकात की। महात्मा गाँधी द्वारा आहूत सन १९२० के 'असहयोग आंदोलन' में महाकोशल अंचल से पहली गिरफ्तारी देने वाले माखनलालजी ही थे। सन १९३० के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी उन्हें गिरफ्तारी देने का प्रथम सम्मान मिला। उनके महान कृतित्व के तीन आयाम हैं : एक, पत्रकारिता- 'प्रभा', 'कर्मवीर' और 'प्रताप' का संपादन। दो- माखनलालजी की कविताएँ, निबंध, नाटक और कहानी। तीन- माखनलालजी के अभिभाषण/ व्याख्यान।[३][संपादित करें] पुरस्कार व सम्मान१९४३ में उस समय का हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा 'देव पुरस्कार' माखनलालजी को 'हिम किरीटिनी' पर दिया गया था। १९५४ में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की स्थापना होने पर हिन्दी साहित्य के लिए प्रथम पुरस्कार दादा को 'हिमतरंगिनी' के लिए प्रदान किया गया। 'पुष्प की अभिलाषा' और 'अमर राष्ट्र' जैसी ओजस्वी रचनाओं के रचयिता इस महाकवि के कृतित्व को सागर विश्वविद्यालय ने १९५९ में डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया। १९६३ में भारत सरकार ने 'पद्मभूषण' से अलंकृत किया। १० सितंबर १९६७ को राष्ट्रभाषा हिन्दी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में माखनलालजी ने यह अलंकरण लौटा दिया। १६-१७ जनवरी १९६५ को मध्यप्रदेश शासन की ओर से खंडवा में 'एक भारतीय आत्मा' माखनलाल चतुर्वेदी के नागरिक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। तत्कालीन राज्यपाल श्री हरि विनायक पाटसकर और मुख्यमंत्री पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र तथा हिन्दी के अग्रगण्य साहित्यकार-पत्रकार इस गरिमामय समारोह में उपस्थित थे। भोपाल का माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय उन्हीं के नाम पर स्थापित किया गया है। उनके काव्य संग्रह 'हिमतरंगिणी' के लिये उन्हें १९५५ में हिन्दी के 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।[४][संपादित करें] प्रकाशित कृतियाँहिमकिरीटिनी, हिम तरंगिणी, युग चरण, समर्पण, मरण ज्वार, माता, वेणु लो गूंजे धरा, बीजुरी काजल आँज रही आदि इनकी प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ हैं। कृष्णार्जुन युद्ध, साहित्य के देवता, समय के पांव, अमीर इरादे :गरीब इरादे आदि आपकी प्रसिद्ध गद्यात्मक कृतियाँ हैं।

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